Saturday, September 25, 2010

खोज

जीवन की इस आपा-धापी में,
एक अनजानी सफ़लता की खोज में,
निरन्तर भाग रहा है मनुष्य,
जैसे को‌ई मृग मरुभूमि में,

जिसे दिखता है जल, पर जो है नहीं,

वो भागता है उस ओर जी जान लगाकर,
जल है, उसे है पूर्ण विश्वास इस दृष्ट पर,
क्यों माने कि हैं ये सिर्फ़ लहरें प्रतीत रेत पर,
जब सब कुछ है उसे दृष्टि-गोचर,

जो सिर्फ़ श्रव्य नहीं दृष्टि-बंधन नहीं,

इस भ्रम जाल से मुक्ति का मार्ग कैसे मिले,
मृग हो या मनुष्य उचित राह पर कैसे चले,
ज्ञान, विश्वास, पुरुषार्थ कि प्राप्ति से पहले,
सफ़ल जीवन के लिये सन्मार्ग कैसे मिले,

जिस पर चल कर उसे गंतव्य मिले, इन्द्रजाल नहीं,

गुरु ही देगा वह ज्ञान का प्रकाश ,
गुरु-ज्ञान से ही विकसित होगा विश्वास,
उस विश्वास से ही विकसित होगा पुरुषार्थ,
उस पुरुषार्थ से ही मिलेगा वह सन्मार्ग,

जो जाता है जल की ओर मरीचिका कि ओर नहीं,

हे प्रभु इससे पहले कि कुछ और दे,
एक सद्‍गुरु से अवश्य मिलवा दे,
जिससे मिट जायेंगे सब भ्रम, कट जायेगें बंधन,
तब ही मिलेगा परमानंद, सफ़ल होगा यह जीवन,

गुरु की खोज से बढ़ कर को‌ई और खोज नहीं।

Thursday, September 9, 2010

अमोघ

मन हो एकाग्रचित्त,
परिणाम से अविचलित।


लोक चर्चा से न होकर भ्रमित,
उद्देश्य को इगिंत।


अकर्मण्यता से विलगित,
प्रभु को समर्पित।


ऐसा ही उद्यम होगा अमोघ,
यह समझो अकाट्य निश्चित॥

Wednesday, September 1, 2010

प्रभु

तू है विराजमान हर कण में,
इस विश्वास में जीते हैं,
तेरा वजूद एक भ्रम है,
ऐसा भी कुछ ज्ञानी कहते हैं,
क्या तेरा होना सिर्फ़ भ्रम है,
संसार माया नहीं सत्य है या,
सिर्फ़ तू सत्य है और यह संसार माया है, भ्रम है,
तू आयेगा जब जब धर्म की ग्लानि होगी,
या है उपस्थित हर क्षण हर कण में निरंतर,
क्या मानूं कि जब नहीं आया तो,
है सब धर्मयुक्त व्यवस्थित,
हर तरफ फैली यह अफ़रा-तफ़री भी,
और हर कण में तेरी उपस्थिति भी,
कैसे उपेक्षित करूं यह द्वंद,
इस द्विविधा से हमें उबारने के लिये,
अपने नियम को फिर से परिभाषित करने के लिये,
तू है अनादि अनन्त अखंड अछेद अभेद सुबेद,
यह सदा के लिये निर्धारित करने के लिये,
एक बार फिर से आ‌ओ मेरे प्रभु,
सत्य और भ्रम का भेद मिटा‌ओ मेरे प्रभु॥