Tuesday, August 10, 2010

सुन बटोही

तुझे यदि मन्ज़िलों का ज़रा भी ग़ुमान होता,
इन रास्तों से चलते हुए न यूं हैरान होता,
बिना हैरानियों के सफ़र न यूं जीवन्त होता,
शोरगुल के बीच भी मन तेरा वीरान होता ।


सामने नज़रों के तेरी गुजरते जो दॄश्य हैं,
बदलते यूं कि जैसे अभिसारिका के परिधान हैं,
ये कभी भी बोध स्थिरता का न होने देते हैं,
लग रहे ये चलते से, पर असल में तो तू गतिमान है।

यहां से पहले भी गुजरे हैं अनगिनत राही,
बाद में भी गुजरने वालों की कमी न होगी,
कुछ थे भूले कुछ थे भटके कुछ ने यह राह खोजी,
मत भटकना इस नैनाभिराम दॄश्य से तू मनोयोगी ।

तुझको मिलेगें कितने खण्डहर कितने जंगल कितने वीराने,
कितने साथी कितने प्रतिभागी कितने सीधे कितने सयाने,
वो जो हैं आज तेरे अपने जब मिले तब तो थे अनजाने,
इस पल में हैं साथ तेरे कल न थे कल होगें कोई न जाने ।

न रुकना कटंकाकीर्ण इस पथ मे देख तू पैरों के छाले,
दे सहारा उसको भी जो थका प्यासा घायल यदि कोई मिले,
चल पड़ेगा वो भी हारा पड़ा जो बस उसकी बांह गह ले,
तुझको भी तो साथी मिलेगा चल रहा था अब तक अकेले ।

तू है बटोही सिर्फ़ चलना ही तेरा कर्तव्य ठहरा,
न कर विश्राम न रुक कहीं भी और न ही तू कर बसेरा,
जो चुना पथ तूने अपना चलता रह बस उस पर निरन्तर,
है ये निश्चित मान ले मिल जायेगा जो है गंतव्य तेरा ।

3 comments:

  1. Aapki kavita ko padhkar Robert Frost ki ye prassidh panktiyaan yaad aa gayin-

    The woods are lovely, dark and deep.
    But I have promises to keep,
    And miles to go before I sleep,
    And miles to go before I sleep.

    shubhkamnayen.

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  2. संध्या जी आप जैसे विदुषी से इतना बड़ा कॉम्प्लीमेंट , मै तो नि:शब्द हो गया हूं । बस यही कह सकता हूं कि : "पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे" । हार्दिक धन्यवाद ।

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  3. आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया! आपने अच्छा सुझाव दिया है कि मैं कविता थोड़ा बड़ा लिखूँ और अब से मैं ये कोशिश ज़रूर करुँगी!
    बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने! आपका ये ब्लॉग मुझे बेहद पसंद आया!

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